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दि꣣वो꣢ ध꣣र्त्ता꣡सि꣢ शु꣣क्रः꣢ पी꣣यू꣡षः꣢ स꣣त्ये꣡ विध꣢꣯र्मन्वा꣣जी꣡ प꣢वस्व ॥१२४३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

दिवो धर्त्तासि शुक्रः पीयूषः सत्ये विधर्मन्वाजी पवस्व ॥१२४३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दि꣣वः꣢ । ध꣣र्त्ता꣢ । अ꣣सि । शुक्रः꣢ । पी꣣यू꣡षः꣢ । स꣣त्ये꣢ । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । वाजी꣢ । प꣢वस्व ॥१२४३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1243 | (कौथोम) 5 » 1 » 17 » 3 | (रानायाणीय) 9 » 8 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर परमात्मा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम अर्थात् जगत् के स्रष्टा परमात्मन् ! आप (दिवः) खगोल में विद्यमान लोकलोकान्तरों के (धर्ता) धारण करनेवाले, (शुक्रः) तेजस्वी एवं पवित्र और (पीयूषः) आनन्दरसमय (असि) हो। (वाजी) बलवान् आप (विधर्मन्) विशेष धर्मों से युक्त (सत्ये) मुझे सत्य चरित्रवाले उपासक के अन्दर (पवस्व) बहो ॥३॥

भावार्थभाषाः -

तेजस्वी, पवित्र और आनन्दवान् परमेश्वर अपने उपासकों को भी तेजस्वी, पवित्र और आनन्दयुक्त कर देता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, राजा, आचार्य, ज्ञानरस और आनन्दरस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम जगत्स्रष्टः परमेश ! त्वम् (दिवः) खगोले विद्यमानानां लोकलोकान्तराणाम् (धर्ता) धारयिता, (शुक्रः) तेजस्वी पवित्रश्च, (पीयूषः) आनन्दरसमयश्च (असि) विद्यसे। (वाजी) बलवान् त्वम् (विधर्मन्) विशिष्टधर्मयुक्ते (सत्ये) सत्यचरित्रे मयि (पवस्व) प्रवहस्व ॥३॥

भावार्थभाषाः -

तेजस्वी पवित्र आनन्दी च परमेश्वरः स्वोपासकानपि तेजस्विनः पवित्रानानन्दिनश्च करोति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो नृपतेराचार्यस्य ज्ञानस्यानन्दरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०९।६।